Sanskrit Shlok With Hindi Meaning संस्कृत श्लोक अर्थ सहित

Sanskrit Shlok With Hindi Meaning | संस्कृत श्लोक अर्थ सहित

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Sanskrit Shlok: नमस्कार दोस्तों, कैसे है? आशा करते है आप बिलकुल स्वस्थ और अच्छे होंगे. दोस्तों, आज हम आपके साथ शेयर करने जा रहे है Sanskrit Shlok With Hindi Meaning Images के साथ.

दोस्तों, आप सभी को पता ही है की सब भाषाओ की जननी संस्कृत ही है. और हमारे पुराण और भागवत गीता जैसे पविर्त ग्रन्थ संस्कृत में ही लिखे है. यह भारत की एक प्राचीन भाषा में से एक है.

आज हम यहाँ आपके लिए लेकर आए है Sanskrit Shlok With Hindi Meaning जिसकी मदद से आप अपने ज्ञान की वृध्दि कर सकेंगे और जो हमारी संस्कृत भाषा है उसे भी सिखने का आनंद ले सकेंगे.

हमें आशा है आपको यह Sanskrit Shlok With Hindi Meaning जरुर पसंद आयेंगे. अपने दोस्तों और चाहने वालो के साथ शेयर जरुर करे. अगर आपका कोई भी सवाल या सुजाव है तो हमें यहाँ लिख भेजे.

Sanskrit Shlok With Hindi Meaning पढ़ने का आनंद. आपका दिन शुभ रहे. जय श्री कृष्णा! राधे राधे!

Sanskrit Shlok

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(1) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

अर्थ – भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, काम करना तुम्हारा अधिकार है
परन्तु फल की इच्छा करना तुम्हारा अधिकार नहीं है।
काम करो और फल की इच्छा मत करो,
यानी फल की इच्छा किए बिना काम करो, क्योंकि फल देना मेरा काम है।

(2) यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते, निघर्षण-च्छेदन-ताप-ताहनैः।
तथा चतुर्भिः पुरूषः परीक्ष्यते, त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।।

अर्थ – वैसे ही जैसे सोने की चीज़ की जाँच ने के लिए उसे घिसकर, काटकर, तपकर और पीटकर चार तरीकों से परखा जाता है,
ठीक उसी तरीके से व्यक्ति की मूल्यांकन के लिए उसके त्याग, आचरण, गुण और कार्यों की जाँच की जाती है।

(3) येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।

अर्थ – वे लोग जिनके पास विद्या, तप, दान, आचरण, गुण और धर्म नहीं होता,
उन्हें इस भूमि के लिए बोझ समझा जाता है,
और वे मानव के रूप में नहीं, बल्कि जानवर के रूप में घूमते हैं।

(4) श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्र्चला |
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ||

अर्थ – भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ, जब तुम अपने कर्मों के परिणामों से प्रभावित नहीं होते,
और वेदों के ज्ञान से भी विचलित नहीं होते, और आत्मसाक्षात्कार की समाधि में स्थिर हो जाते हो,
तब तुम्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है।

(5) उद्यम हि सिद्ध्यन्ति, कार्याणि न मनौरयैः।
न हिं सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुर्खे मृगाः।।

अर्थ – कार्य करने से ही कुछ बनता है, सिर्फ सोचने से कोई लाभ नहीं होता।
जैसे कि सोए हुए शेर के मुँह में हिरण नहीं आता,
सिंह को भी मेहनत करके ही शिकार करना पड़ता है।

Sanskrit Shlok With Hindi Meaning

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(1) त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥

अर्थ – तुम ही माता हो और तुम ही पिता हो। तुम ही बंधुहो और तुम ही सखा (मित्र) हो।
तुम्हीं विद्या हो और तुम ही धन दौलत हो। हे! मेरे भगवान मेरे लिए तुम ही सब कुछ हो।

(2) नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥

अर्थ – भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, यह आत्मा अजर और अमर है,
इसे न तो आग जला सकती है, न पानी भीगा सकता है, न हवा इसे सुखा सकती है,
और न कोई शस्त्र इसे काट सकता है। यह आत्मा अविनाशी है।

(3) बधिरयति कर्णविवरम्, वाचं मूकयति नयनमन्धयति।
विकृतयति गात्रयष्टिम्, सम्पद् रोगोऽयमद्भुतो राजन्।।

अर्थ – संपत्ति एक ऐसा अजीब बीमारी है, जो कानों को बहरा बना देती है, वाणी को मूक बना देती है,
आंखों को अंधा बना देती है, और शरीर को विकारों से भरा बना देती है।

(4) गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥

अर्थ – गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, और गुरु महेश्वर अर्थात भगवान शंकर हैं।
गुरु ही साक्षात परम ब्रह्म सर्वशक्तिमान होते हैं, इसलिए ऐसे गुरु को मैं नमस्कार करता हूँ।

(5) न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।

अर्थ – वह धन जो चोरी नहीं की जा सकती, जो कोई छीन नहीं सकता,
जिसे भाई-बहनों में बंटवारा नहीं किया जा सकता, जिसे संभालना मुश्किल नहीं है,
और जो व्यय करने पर बढ़ता है, वह धन विद्या है। विद्या सबसे बड़ा धन है।

Sanskrit Shlok With Meaning

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(1) सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

अर्थ – श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन, सभी धर्मों को छोड़कर,
सभी मोह और माया से बचकर मेरे शरण में आ जाओ।
मैं ही तुम्हें पापों से मुक्ति दे सकता हूं, इसलिए शोक मत करो।

(2) नरस्याभरणं रूपं, रूपस्याभरणं गुणः।
गुणस्याभरणं ज्ञानं, ज्ञानस्याभरणं क्षमा॥

अर्थ – मनुष्य का सबसे बड़ा आभूषण उसका रूप और सौन्दर्य होता है,
और रूप का सबसे बड़ा आभूषण उसके गुण होते हैं।
गुणों का सबसे बड़ा आभूषण ज्ञान होता है, और ज्ञान का सबसे बड़ा आभूषण क्षमा होती है,
अर्थात् क्षमाशीलता मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण आभूषण होती है।

(3) अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः!
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् !!

अर्थ – कई लोगों को केवल धन की लालसा होती है, ऐसे लोग सम्मान के महत्व को नहीं समझते।
एक मध्यम वर्ग का व्यक्ति धन और सम्मान दोनों की इच्छा करता है,
जबकि उच्च वर्ग के व्यक्ति के लिए सम्मान ही महत्वपूर्ण होता है। सम्मान धन से अधिक मूल्यवान है।

(4) अविश्रामं वहेत् भारं शीतोष्णं च न विन्दति ।
ससन्तोष स्तथा नित्यं त्रीणि शिक्षेत गर्दभात् ॥

अर्थ – विश्राम किए बिना भार उठाना, यहाँ तक की ठंड और गर्मी का अहसास ना करना,
और हमेशा संतोष बनाए रखना – ये तीन बातें हमें गधे से सीखनी चाहिए।

(5) देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन:।
गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः।।

अर्थ – देवताओं के रूठने पर गुरु रक्षा करते हैं, और अगर गुरु रूठ जाएं, तो कोई भी रक्षा नहीं करता।
गुरु सभी मुश्किलों को दूर करते हैं, लेकिन गुरु नाराज हो जाएं तो कोई भी मदद नहीं करता।

Geeta Shlok In Sanskrit

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(1) श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥

अर्थ – श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, वह मनुष्य जो भगवान में श्रद्धा रखता है,
वह अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करके ज्ञान प्राप्त कर लेता है,
और ज्ञान प्राप्त करने वाले ऐसे पुरुष शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त करते हैं।

(2) परान्नं च परद्रव्यं तथैव च प्रतिग्रहम्।
परस्त्रीं परनिन्दां च मनसा अपि विवर्जयेत।।

अर्थ – दूसरों का भोजन, दूसरों की संपत्ति, अनाथों के लिए दान, दूसरी स्त्री,
और दूसरों की निंदा, इनकी इच्छा मनुष्य को कभी नहीं करनी चाहिए।

(3) योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

अर्थ – श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, सफलता और असफलता के मोह को छोड़कर,
अपने कार्यों को पूरे मन से समभाव से करो। इस समभाव की भावना को ‘योग’ कहते हैं।

(4) अनाश्रित: कर्मफलम कार्यम कर्म करोति य:।
स: संन्यासी च योगी न निरग्निर्ना चाक्रिया:।।

अर्थ – श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, वह मनुष्य जो कर्मफल की इच्छा किए बिना कर्म करता है,
और अपने कर्मों का दायित्व मानकर सदाचार करता है, वही मनुष्य योगी है।
जो सदाचार नहीं करता, वह संत कहलाने योग्य नहीं है।

(5) क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

अर्थ – श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, क्रोध के कारण मन दुर्बल हो जाता है
और स्मरण शक्ति बंद हो जाती है। इस रूप में, बुद्धि का नाश होता है
और बुद्धि के नाश से मनुष्य स्वयं भी नष्ट हो जाता है।

Sanskrit Mein Shlok

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(1) यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ॥

अर्थ – रथ कभी एक पहिये पर नहीं चल सकता हैं,
उसी प्रकार पुरुषार्थ विहीन व्यक्ति का भाग्य सिद्ध नहीं होता।

(2) आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।

अर्थ – व्यक्ति का सबसे बड़ा दुश्मन आलस्य होता है,
व्यक्ति का परिश्रम ही उसका सच्चा मित्र होता है।
क्योंकि जब भी मनुष्य परिश्रम करता है, तो वह दुखी नहीं होता है और हमेशा खुश ही रहता है।

(3) वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥

अर्थ – जैसे व्यक्ति अपने पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए और सुंदर वस्त्र पहनता है,
ठीक उसी रीति से आत्मा पुराने शरीरों को त्यागकर नए शरीरों में प्रवेश करती है।

(4) अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम।
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।

अर्थ – अपमान करना, मुँह फेरना, देर से देना, कठोर शब्द बोलकर देना,
और फिर पश्चाताप करना – ये पाँच तरीके दान को नकारात्मक बना देते हैं।

(5) प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥

अर्थ – श्री कृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ, इस संसार में समस्त क्रियाएं प्राकृतिक गुणों के प्रेरणा से ही की जाती हैं।
जो व्यक्ति मानता है कि “मैं कर्ता हूँ,” उसका मन अहंकार से भर जाता है। ऐसे व्यक्ति अज्ञानी होते हैं।

Sanskrit Shlok On Karma

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(1) क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् ।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥

अर्थ – एक-एक क्षण गवाए बिना विद्या ग्रहण करनी चाहिए और एक-एक कण बचाकर धन एकत्र करना चाहिए।
क्षण गवाने वाले को विद्या कहाँ और कण को क्षुद्र समझने वाले को धन कहाँ?

(2) ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य: |
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ||

अर्थ – जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है,
वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है।

(3) यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे।
कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥

अर्थ – दूसरे व्यक्तिगत कार्य, व्यवहार, गोपनीयता, सलाह, और विचार को केवल
उनके पूर्ण होने के बाद ही जान पाने वाले व्यक्ति को ही “ज्ञानी” कहा जाता है।

(4) योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

अर्थ – हे अर्जुन, कार्य को न करने का जो आग्रह है, उसे छोड़कर,
यश और अपयश के विषय में समबुद्धि रखकर योग्युक्त होकर कार्य करो।
क्योंकि समान दृष्टिकोण को ही योग कहा जाता है।

(5) तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्‌णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।

अर्थ – श्री कृष्ण कहते हैं, “हे अर्जुन, मैं सूर्य की गर्मी हूं, मैं वर्षा करता हूं और मैं वर्षा की आकर्षण हूं।
हे पार्थ, मैं अमृत और मृत्यु में भी हूं, और मैं सत्य और असत्य में भी हूं।”

Sanskrit Shlok On Life

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(1) कण्टकावरणं यादृक्फलितस्य फलाप्तये।
तादृक्दुर्जनसङ्गोSपि साधुसङ्गाय बाधनं॥

अर्थ – जैसे एक वृक्ष के कांटे उसके फलों को पाने में रुकावट डालते हैं,
ठीक उसी तरह दुष्ट लोगों की मित्रता साधु और भले लोगों की संगति में रुकावट डालती है।

(2) द्वाविमौ पुरुषौ लोके सुखिनौ न कदाचन।
यश्चाधनः कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्वरः।।

अर्थ – दो तरह के लोग हमेशा असंतुष्ट रहते हैं – जो जितना धन है, उससे अधिक चाहते हैं,
और जो शक्ति कम होने पर भी गुस्सा करते हैं।

(3) आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।

अर्थ – मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है आलस्य और सबसे बड़ा मित्र है परिश्रम,
क्योंकि जो प्रयास करता है, वह कभी भी दुखी नहीं हो सकता।

(4) अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः।।

अर्थ – बिन बुलाए कहीं जाना, बिना पूछे बहुत ज्यादा बात करना,
उन चीजों पर या जिन लोगों पर आपको विश्वास नहीं करना चाहिए,
उन पर विश्वास करना मूर्ख लोगों के लक्षण हैं।

(5) वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया।
लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं।।

अर्थ – जिस व्यक्ति की बातें प्यारी हों, काम में मेहनत लगे,
और जो दान देने के लिए अपना धन उपयुक्त करे, उ
सका जीवन सफल माना जाता है।

Best Sanskrit Shlok

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(1) शरीरस्य गुणानाश्च दूरम्अन्त्य अन्तरम् ।⁣⁣
शरीरं क्षणं विध्वंसि कल्पान्त स्थायिनो गुणा: ।।

अर्थ – शरीर और गुण, ये दोनों में बड़ा अंतर है।
शरीर कुछ ही समय के लिए हमारा साथ देता है,
जबकि गुण हमारे साथ प्रलय काल तक रहते हैं।

(2) क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति मानो विनयनाशनः ।
माया मित्त्राणि नाशयति लोभः सर्वविनाशनः ॥

अर्थ – क्रोध प्रेम को नष्ट कर देता है, अभिमान विनय को नष्ट कर देता है,
पाखंड मित्रता को नष्ट कर देता है, और लालच सब कुछ नष्ट कर देता है।

(3) कालोऽयं विलयं याति भूतगर्ते क्षणे क्षणे ।
स्मृतयस्त्ववशिष्यन्ते जीवयन्ति मनांसि न: ।।

अर्थ – हर क्षण समय जाता है अतीत की यात्रा में,
बस स्मृतियाँ बचती हैं जो हमें याद रहती हैं और हमारे मन को जीवंत रखती हैं।

(4) गौरवं गुरुषु स्नेहं नीचेषु प्रेम बन्धुषु।
दर्शयन् विनयी धर्मी सर्वप्रीतिकरो भवेत् ॥

अर्थ – एक सवेंदनशील और नेक व्यक्ति, जो अपने बड़ों के प्रति प्यार, छोटों के प्रति प्यार
और अपने परिवार के प्रति प्रेम रखता है, उसे सभी पसंद करते हैं।

(5) प्रदोषे दीपकश्चंद्र: प्रभाते दीपको रवि:।
त्रैलोक्ये दीपको धर्म: सुपुत्र: कुलदीपक:॥

अर्थ – शाम को चन्द्रमा प्रकाशित करता है, दिन को सूर्य प्रकाशित करता है,
तीनों लोकों को धर्म प्रकाशित करता है और सुपुत्र पूरे कुल को प्रकाशित करता है।

Bhagwat Geeta Shlok In Sanskrit

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(1) यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥

अर्थ – जो कभी हर्षित नहीं होता, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है,
और जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है।

(2) हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥

अर्थ – श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, यदि तुम युद्ध करते समय वीरगति को प्राप्त होते हो,
तो तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी। और यदि तुम युद्ध में जीत जाते हो,
तो तुम धरती पर स्वर्ग समान राजपाट भोगोगे। इसलिए बिना कोई चिंता किए उठो और युद्ध करो।

(3) यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।

अर्थ – श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, जो कर्म करने वाला श्रेष्ठ पुरुष है, उसका आदर करते हैं।
जैसे वह कुछ करता है, दूसरे भी वही करते हैं, यह उनके लिए प्रेरणा है।

(4) त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।

अर्थ – काम, क्रोध, और लोभ – ये तीनों प्रकार के नरक के दरवाजे हैं जो जीवात्मा का पतन करते हैं।
इसलिए मनुष्य को शांति पूर्वक जीवन जीने के लिए इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए।

(5) यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

अर्थ: हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान होता है,
तब-तब मैं स्वयं आकर अधर्म का नाश करने के लिए प्रकट होता हूँ।

Bhagwat Geeta Shlok In Sanskrit With Meaning In Hindi

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(1) न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥

अर्थ – यह निश्चित है कि कोई भी मनुष्य, किसी भी समय में, बिना कर्म किए हुए क्षणमात्र भी नहीं रह सकता।
सभी जीव और मनुष्य को प्रकृति के द्वारा कर्म करने में बाध्य किया जाता है।

(2) ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।

अर्थ – श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, वस्तुओं और इच्छाओं के बारे में
निरंतर सोचने से मानव मन में लगाव पैदा होता है।
यह आसक्ति और इच्छाओं को उत्पन्न करता है, जिससे कामना और क्रोध होता है।

(3) क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्भुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

अर्थ – क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है, यानी मूढ़ हो जाती है, जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है।
स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है
और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही नाश कर बैठता है।

(4) अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌ ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥

अर्थ – जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है,
वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है। इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

(5) न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।

अर्थ – श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, तीनों लोकों में मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है,
और मेरे लिए कुछ भी असंभव नहीं है, लेकिन फिर भी मैं अपना काम करता हूं।

अंत में:

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