मैंने जो कुछ भी सोचा हुआ है,
मैं वो वक़्त आने पे कर जाऊँगा,
तुम मुझे ज़हर लगते हो और मैं किसी दिन तुम्हें पी के मर जाऊँगा

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कौन तुम्हारे पास से उठ कर घर जाता है तुम जिसको छू लेती हो वो मर जाता है

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रुक गया है वो या चल रहा है हमको सब कुछ पता चल रहा है उसने शादी भी की है किसी से और गाँव में क्या चल रहा है

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अब मज़ीद उससे ये रिश्ता नहीं रक्खा जाता जिससे इक शख़्स का पर्दा नहीं रक्खा जाता एक तो बस में नहीं तुझसे मोहब्बत ना करूँ और फिर हाथ भी हल्का नहीं रक्खा जाता

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पढ़ने जाता हूँ तो तस्मे नहीं बाँधे जाते घर पलटता हूँ तो बस्ता नहीं रक्खा जाता

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क्या ख़बर कौन था वो और मेरा क्या लगता था जिससे मिलकर मुझे हर शख़्स बुरा लगता था

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तुमने कैसे उसके जिस्म की खुशबू से इन्कार किया उस पर पानी फेंक के देखो कच्ची मिट्टी जैसा है

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और फिर एक दिन बैठे बैठे मुझे अपनी दुनिया बुरी लग गयी जिसको आबाद करते हुए मेरे मां-बाप की ज़िंदगी लग गयी

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तिलिस्म-ए-यार ये पहलू निकाल लेता है कि पत्थरों से भी खुशबू निकाल लेता है है बे-लिहाज़ कुछ ऐसा की आँख लगते ही वो सर के नीचे से बाजू निकाल लेता है

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महीनों बाद दफ्तर आ रहे हैं हम एक सदमे से बहार आ रहे हैं समंदर कर चूका तस्लीम हमको ख़ज़ाने खुद ही ऊपर आ रहे हैं

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सच में कोई किसी का नहीं होता, ये शायरी पढ़ने के बाद पता चल जाएगा. जरुर पढ़े!

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